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ग्राम पंचायत चुनाव का हाल !

ekmulakat
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उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कुछ जिलों में मतदान हो चुके हैं, कुछ में जारी है। राज्य की फिजां में स्थानीय चुनाव की खुशबू महसूस की जा सकती है। हर चौराहे और नुक्कड़ पर इसका उदाहरण देखा जा सकता है। सीट आरक्षित है या सामान्य, प्रत्याशी चयन से लेकर नामांकन तथा मतदान से लेकर मतगणना तक का पूरा दौर चुनावी सरगर्मी के बीच ही गुजरता है। पिछले कुछ वर्षों से ग्राम पंचायतों को मिलने वाले संवैधानिक विशेषाधिकार ने इसकी दशा बदल दी है। ग्राम सभा के विकास के लिए सरकार द्वारा आवंटित धन सबको आकर्षित करने लगा है। पद के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी जुड़ गयी है। स्थानीय राजनीति से उपर उठने का बेहतर अवसर भी मिल जाता है।

ग्रामीण राजनीति अक्सर सवर्णों, धनाढ्य या दबंगों के जिम्मे ही होती है। सीटें सामान्य होने पर ये खुद चुनाव मैदान में उतरते हैं। अगर सीटें आरक्षित हों तो इनका कोई प्रतीक उम्मीदवार सामने आता है। असली अधिकार मालिकों के पास ही होता है। सीट अगर महिला आरक्षित हो तो नामांकन महिला का होता है, लेकिन प्रतिनिधित्व पति या घर का कोई अन्य सदस्य करता है। कुछ ग्राम पंचायतों में तो वंशवाद और परिवारवाद भी देखा जा सकता है।

कमोवेश, ग्राम पंचायत चुनाव भी जातिगत समीकरणों, धनबल तथा व्यक्तिगत ईर्ष्या के चक्रव्यूह में फंस कर रह गया है। चुनाव की तिथियों से पूर्व ही संभावित प्रत्याशी अपनी योजना बनाने लगते हैं। ग्रामीण मतदाताओं की भी अपनी अलग योजना होती है। अधिकांश मतदाता ये पहले ही तय कर लेते हैं कि इस बार किस खेमे में रहना है। दुखद ये है कि इनकी योजनाबद्धता स्थानीय समस्यायों, मुद्दों या प्रत्याशी की योग्यता पर कतई आधारित नहीं होती है। इसका आधार मतदाता का अपना व्यक्तिगत हित, प्रत्याशी से उसके संबंध तथा उसकी जाति है। अगर एक ही जाति के कई उम्मीदवार खड़े हों जाएं तो मतदाता भी कई खेमों में बंट जाते हैं। किसी प्रत्याशी और मतदाता के रिश्ते अच्छे होने पर उस मतदाता के परिवार के सभी मत उसी प्रत्याशी को मिलते हैं। प्रत्याशी की छवि कैसी है, उसका एजेंडा क्या है, ग्राम सभा के विकास में उसका क्या और कितना योगदान है, क्या वो बेहतर नेतृत्व कर पायेगा? आदि बातों के कोई मायने नहीं हैं।

अतिरिक्त धन बल इन चुनावों की दिशा तथा निर्णय दोनों ही का निर्धारण करता है। कोई भी आर्थिक सम्पन्न व्यक्ति जो लम्बे समय से गांव में न रहा हो, जिसे गांव की आधारभूत समस्यायें भी नहीं पता, जिसके पास गांव की उन्नति की कोई योजना न हो, पैसा खर्च कर के कुछ दिनों में ही मजबूत उम्मीदवार हो जाता है। स्थानीय चुनाव होने की वजह से कैम्पेनिंग का व्यवहारिक समय निर्धीरित नहीं होता है। उम्मीदवार पूरी रात मतदाताओं को रिझाने का प्रयास करते रहते हैं। सजातिय मतदाताओं से भावनात्मक रिश्ता जोड़ते हैं। पिछड़े, अति-पिछड़े तथा आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को नकदी, शराब तथा महिलाओं को कपड़े, साड़ियों आदि का प्रलोभन देते हैं। हर उम्मीदवार तथा उनके समर्थक येन–केन प्रकारेण मतदाताओं को लुभाने में व्यस्त रहते हैं। अपने खेमे के नाबालिग युवकों का नाम मतदाता सुची में दर्ज कराने के भी अनेक मामले सामने आये हैं।

महात्मा गाँधी को गांवों से विशेष लगाव था। उनका मानना था कि ‘भारत का स्वर्ग गांवों में ही बसता है’। सरकार की तरफ से ग्राम पंचायतों के सुधार का प्रयास किया जाता रहा है। पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में कृषि विस्तार से लेकर सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का निर्वाह आदि तक को शामिल किया गया है। इन कार्य क्षेत्रों के अनुसार ही इन्हें संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं। हांलाकि अनेक वजहों से अब तक कोई भी योजना पूर्णरूपेण प्रभावी नहीं दिखती है। ग्रामीण समाज में पंचायती राज के प्रति सम्पूर्ण जागरूकता अब तक नहीं हो पायी है। ग्रामीण मतदाता आज भी इसके महत्व और आवश्यकता से अनभिज्ञ है। इस वजह से सरकार की तरफ से ग्राम पंचायत के लिए आवंटित धन ग्राम प्रधानों और उनके निकटवर्तियों में बंट कर रह जाता है। इन्ही समस्याओं को ध्यान में रख कर भारत ने पंचायतों को डिजिटल करने की योजना बनाई है। कुछ कदम उठाए भी गए हैं। देखना दिलचस्प होगा कि सरकार अपने इस अभियान में किस हद तक सफल होती है?  इसका जबाव तो आने वाले कल में छिपा है, लेकिन सरकार को गतिशील रहने की जरूरत है।

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