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न्यायपालिका में आस्था का सवाल !

ekmulakat
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पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह से न्यायपालिका ने विधायिका और कार्यपालिका को प्रभावित किया है, वह प्रशंसनीय है। पर्यावरण प्रदूषण से लेकर भ्रष्टाचार तथा जजों की नियुक्ति प्रणाली से लेकर हर छोटे-बड़े मसले पर न्यायालय ने अपनी बेबाक टिप्पणी दी है। शायद इन्ही वजहों से आम जन की  न्यायपालिका में आस्था बढ़ने लगी थी, किन्तु हाल ही में लिए गए एक फैसले ने आम लोगों को न्यायालयों के प्रति उनका पुराना नजरिया बनाए रखने को मजबूर कर दिया है। वह है मुंबई का हिट एंड रन मामला। चूँकि, मामला मशहूर अभिनेता सलमान खान से जुड़ा है, अतः पूरे देश की नजरें इस केस पर टिकी हुई थी। सलमान  खान पर आरोप था कि उन्होंने 28 सितंबर 2002 को नशे में कार चलाते हुए बांद्रा में सड़क के किनारे सो रहे पाँच लोगों को कुचल दिया था। बाम्बे उच्च न्यायालय ने पर्याप्त सबूतों के अभाव में सलमान खान को इस केस से बरी कर दिया। हालांकि, निचली अदालत ने उन्हीं सबूतों के आधार पर उन्हें पाँच साल कारावस की सजा सुनाई थी। निचली अदालत ने ये माना था कि गाड़ी सलमान ही चला रहे थे, जबकि उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह कहा है कि इसके पर्याप्त साक्ष्य नहीं है कि सलमान ही गाड़ी चला रहे थे। उच्च न्यायालय के इस फैसले को किस आधार पर सही माना जाए? अगर गाड़ी भाई जान नहीं चला रहे थे तो कौन चला रहा था? क्या वो गाड़ी स्वचालित है? गाड़ी और चालक की सच्चाई जो भी हो, इस केस का सबसे बड़ा सच यह है कि फुटपाथ पर सो रहे पाँच मासूम लोगों को इस हादसे का शिकार होना पड़ा था। एक व्यक्ति की जान भी गयी थी। यह स्पष्ट है कि जिस कार से हादसा हुआ था, वो सलमान की है। जब तेरह सालों में ये पता नहीं चल पाया है कि उस घटना के दौरान गाड़ी का चालक कौन था, तो उस न्याय प्रकिया पर सवाल लाजमीं है। क्या इस घटना के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है? अगर है तो कौन? क्या कानून कभी उस दोषी को सजा दिला पायेगा?  क्या उन जिन्दगियों की परवाह करने वाला कोई नहीं है?  इतने गंभीर अपराध में भी उच्च न्यायालय का ऐसा फैसला हैरत में डालने वाला है।

इस फैसले से जन साधारण की उस धारणा, कि “नियम-कानून, संवैधानिक बाध्यताएं, न्यायालय आदि निम्न स्तरीय जीवन शैली के लोगों के लिए बने हैं” को बल जरूर मिल रहा है। आर्थिक संपन्न, रसूखदार तथा राजनीतिज्ञ किसी भी तरह से अधिकांश मुद्दों पर इनका विकल्प तलाश ही लेते हैं।

विधायिका और कार्यपालिका से तो लोगों का विश्वास पहले ही उठ चुका है। चौथे स्तम्भ मीडिया के बारे में तो जन सामान्य का अपना अलग दृष्टिकोण है ही। यह जगजाहिर है कि सभी समाचार पत्र, पत्रिकाएं एंव समाचार चैनल किसी न किसी राजनीतिक दल के साथ जुड़े हुए हैं और उनके हितों के अनुरूप ही कार्य करते हैं। अनेक अवसरों पर यह सिद्ध भी हो चुका है। विधायिका श्वेतवसन अपराधों की जननी है। संसदीय प्रणाली का जितना दुरुपयोग भारत में होता है, उतना शायद ही दुनिया के किसी और लोकतंत्र में होता होगा। कार्यपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। एक न्यायपालिका ही थी जिसमें लोगों का कमोवेश भरोसा अब भी बना हुआ था। इस फैसले ने उस विश्वास को भी हिला कर रख दिया है। अब यह राज्य सरकार पर निर्भर करता है कि वो इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देती है या नहीं। यह तो आने वाला कल ही बतायेगा, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में इसके आसार कम ही हैं कि इस मामले में कोई दोषी साबित हो पायेगा।

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