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देश की राजधानी में वायु प्रदूषण से सांस लेना भी मुश्किल हो गया है। आम नागरिक तो उसी जहरीली हवा में सांस लेने का आदी हो गया है। सरकार भी खामोश थी। न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद सरकार की नींद टूटी और आनन -फानन में ऑड – इवन फॉर्मूला लागू कर दिया गया है। क्या गाड़ियों को कम करने मात्र से राजधानी का प्रदूषण कम हो जाएगा? क्या केवल मोटर वाहनों ने दिल्ली की हवा में आँक्सीजन की कमी कम कर दी है? ऐसा क्यों लग रहा है कि प्रदूषण की समस्या केवल दिल्ली में ही है?
वायु प्रदूषण मानव सभ्यता के साथ ही शुरू हुआ है। सच तो यह है कि वायु प्रदूषण मानव सभ्यता का ही उत्पाद है। 400 ईसा पूर्व में हिप्पोक्रेटस ने शहरी पर्यावरण प्रदूषण के बारे में पता कर लिया था। 1170 ई. में मैमोनिडस ने रोम के बारे में लिखा था –“शहरी वायु तथा ग्रामीण वायु के मध्य वैसा ही संबंध है जैसा कि अत्यधिक दूषित वायु व शुद्ध – स्वच्छ वायु के बीच”। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि शहरों में प्रदूषण कोई नयी समस्या नहीं है।
औद्योगिकरण, जनसंख्या वृद्धि, वाहनों के शौक तथा भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत ने वायुमंडल को प्रदूषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। भौतिक सुखों के लिए संसाधनों का बेजा इस्तेमाल आँक्सीजन का विनाश कर रही है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक किलोमीटर लम्बा-चौड़ा वातानुकूलित क्षेत्र एक लाख से अधिक लोगों की आँक्सीजन छिन लेता है। एक वातानुकूलित कार लगभग एक घंटा चल कर 300 व्यक्तियों की 10 घंटे की आँक्सीजन को समाप्त करती है। घर में रखा फ्रिज 20 व्यक्तियों के बराबर आँक्सीजन लेता है। इन आँकड़ो पर गौर करने से यह पता चलता है कि ग्रामीण परिवेश में हवा अब भी शहरी क्षेत्र के मुकाबले शुद्ध क्यों है?शहरों की बनावटी व दिखावे की जीवन शैली इन्ही संसाधनो पर टिकी हुई है। यही वजह है कि अकेले दिल्ली में गाड़ियो की संख्या विकसित देशों के तमाम शहरों में गाड़ियों की तुलना में ज्यादा है। वातानुकूलित घर और ऑफिस, घरों में फ्रिज जैसे संसाधन शहरी आधारभूत सुविधाओं का हिस्सा हैं।
जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जाऐंगे, पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बढ़ता जाएगा। ऑड – इवन फॉर्मूले का परिणाम चाहे जो भी हो, हमें जागरूक और सावधान होने की जरूरत है। आँक्सीजन के विनाश पर भौतिक सुख-सुविधाओं का कोई औचित्य नहीं है। हम भोजन व पानी के बिना फिर भी कुछ दिन जीवित रह सकते हैं, परन्तु बिना सांस लिए केवल कुछ ही क्षण जीवित रह पायेंगे। इस दिशा में सरकार चाहे जो भी कदम उठाये, हमें भी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए तैयार होना पड़ेगा। जहां तक संभव है, प्रकृति से जुड़े रहने में ही सबका भला है। कहीं ऐसा न हो कि हम अपनी सुख-सुविधाओं की चाहत में अपनी पीढ़ियों को स्वच्छ हवा के लिए तरसा दें।
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