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सोशल मीडिया की व्यथा !

ekmulakat
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सोशल मीडिया के अविष्कार के साथ ही संचार के माध्यमों में क्रान्तिकारी बदलाव का युग आ गया था। आधुनिकता की आपा – धापी वाली जिन्दगी में अपनों से जुड़ने और अपने विचारों को साझा करने का बेहतर विकल्प मिल गया था। काफी हद तक इसने अपनी भूमिका का निर्वाह भी किया है। फेसबुक, ट्विटर जैसी कई सोशल साइट्स अब जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं। ट्विटर पर वर्णों को लिखने की निश्चित क्षमता ने इसे कम शब्दों में प्रभावी संदेश के उपर्युक्त बना दिया है। युवा वर्ग ने फेसबुक को ज्यादा अहमियत दी है। विगत कुछ वर्षों तक फेसबुक का प्रयोग अपने विचारों को शालीनता से प्रस्तुत करने के लिए होता था। बदलते दौर के साथ अब इनके प्रयोग की वजहें भी बदल गई हैं। पहले सोशल मीडिया का राजनीतिकरण किया गया, फिर बाद में धर्म और तमाम सामाजिक बुराईयों नें इसे अपना घर बना लिया है। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा अखाड़ा शायद ही किसी और देश में देखने को मिले। सभी राजनीतिक दलों के चाहने वाले विरोधी दलों या उनके नेताओं की ऐसी दुर्लभ जानकारी भी साझा करते हैं, जो शायद ही कभी खबरों का हिस्सा बन पाए। धार्मिक कट्टरता का नजारा तो अद्भुत है ही। गाय, श्रीराम, श्रीकृष्ण से लेकर सभी मुख्य हिन्दू देवी – देवता, ईसा मसीह, मदीना पाक की तस्वीर, गोल्डेन टेम्पल, महावीर जैन से बुद्ध तक कोई भी इसकी जद से बाहर नहीं है। साँई तो जैसे सोशल मीडिया के लिए ही बने हैं। सभी धर्मों के प्रतीक चिन्हृों तथा उनकी पंक्तियों को इस तरह से प्रसारित किया जाता है, जैसे किसी अन्य धर्म का अनुनायी सोशल मीडिया पर ही धर्म परिवर्तन के लिए तैयार है। अब तो सेना के शहीदों की श्रद्धांजलि व अन्तिम संस्कार तक भी सोशल मीडिया के द्वारा होने लगा है। लड़कियों व महिलाओं की नग्न, अर्द्धनग्न तस्वीरें और तमाम भद्दी और अपमानजनक प्रतिक्रियाएं, गाली – गलौज आदि सोशल साइट्स पर हमारे आधुनिक सामाजिक जीवन की हकीकत बयाँ करती हैं। सबसे ज्यादा दुविधा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर है। अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं है कि किसी और के बारे में उनके बोलने अथवा विचारों की आजादी की सीमा कहाँ तक है?

हकीकत यही है कि हम सोशल मीडिया पर तो हर क्षेत्र में अति-सक्रिय होने का दिखावा करते हैं, लेकिन यथार्थ जीवन में एक जागरूक नागरिक भी नहीं हैं। भाग-दौड़ वाली जिन्दगी में हम न ही उतने धार्मिक हैं, और न ही उतने सामाजिक। राजनीतिक सक्रियता तो अलग पहलू है ही। सबसे अधिक जरूरत सोशल मीडिया पर सक्रिय उन बुद्धिजीवियों को “अभिव्यक्ति की आजादी” से परिचित कराना है, जो अनेक विषयों पर उनकी अश्लील, आपत्तिजनक और गैर-जरूरी प्रतिक्रियायों को अपनी उपलब्धि समझते हैं। उन्हें यह समझाने की जरूरत है कि उनकी आजादी वहीं पर खत्म हो जाती है, जहाँ से किसी और की नाक शुरू होती है। हँसी-मजाक में ही सही, किसी और के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन सर्वथा अनुपयुक्त है। आरोप – प्रत्यारोप, आलोचना आदि स्वस्थ समाज के लिए अति – आवश्यक हैं, लेकिन इनकी आड़ में समाज को विघटित करने का प्रयास कदापि उचित नहीं है।

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