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मृत्यु का मूल्यांकन !

ekmulakat
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हैदराबाद में शोध छात्र रोहित की मौत पर राजनीतिक दलों ने जिस तरह से सियासी रोंटियां सेकनीं शुरू कर दी हैं, वह हताश करने वाला है। सभी विपक्षी दलों सहित तमाम बुद्धिजीवियों ने एक बार फिर इस मुद्दे पर जितनी सक्रियता दिखाई है, वह अपेक्षित नहीं थी। पूरे देश में विरोध प्रदर्शनों का दौर चालू हो गया है। हैदराबाद विश्वविद्यालय  राजनीतिक युद्धभूमि में तब्दील हो गया है। प्रकरण से जुड़े सभी मंत्रियों के इस्तीफे के लिए देशव्यापी अभियान चलाया जा रहा है। देश का आम नागरिक भी दुखी है। इन सबके बीच एक बात आम भारतीय की समझ में नहीं आ रही है कि, सभी विपक्षी राजनीतिक दलों सहित कथित बुद्धिजीवी एक शोधार्थी छात्र की मौत से दुखी हैं या एक दलित शोधार्थी छात्र की मौत से?

अब तक की खबरों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विरोध करने वाले एक दलित छात्र की मृत्यु से सदमें में होने का दिखावा कर रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के नीति नियंता मौतों का मूल्यांकन  जातिगत आधार पर कर रहे हैं? जब एक दलित छात्र की मृत्यु से देश का सामाजिक ताना बाना बिगड़ने का खतरा पैदा हो सकता है, तो फिर एक सवर्ण छात्र की मृत्यु इस देश के रानीतिज्ञों की उपेक्षा का शिकार क्यों है? जिस देश की संस्कृति में त्याग, दया, संवेदनशीलता आदि मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान हो, उस देश के जन प्रतिनिधि इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? क्या ऐसा करके हम सम्रग भारत के विकास की कल्पना भी कर सकते हैं?

इस मुद्दे पर राजनीति करने वाले लोग शायद ये भूल रहे हैं कि उनके ऐसा करने से उन समस्यायों की जड़ों तक कभी नहीं पहुंचा जा सकता है, जो इस घटना के मूल में हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसा करने की मुख्य वजह राजनीतिक लाभ ही है, क्योंकि पुलिस फिलहाल यह पता लगा रही है कि रोहित दलित था या नहीं।। राजनीतिक फायदे के लिए तो अब नेताओं द्वारा अपने बच्चों की झूठी कसमें खाने तक का रिवाज चल पड़ा है। हो सकता है कि इसके तात्कालिक लाभ भी मिलें, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम न तो देश हित में हैं और न ही किसी दल के हित में। यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि देश के राजनीतिज्ञों को अपनी राजनीतिक शैली बदल लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसा संभव प्रतीत नहीं हो रहा है। जिस देश के नीति निर्धारक ही जीवन और मृत्यु का मूल्यांकन जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि के आधार पर करते हों, उस देश के भविष्य के बारे में कुछ अच्छा सोचना अपने आप को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

राजनीति किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली का आधार है। यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस देश के नागरिकों को प्रभावित करती है। नागरिक भी जाने-अनजाने अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। विकसित देशों के लोगों के मानसिक विकास का स्तर भी ऊँचा है, इसीलिए उनकी राजनीति में भी परिपक्वता दिखती है। भारत अभी विकासशील देशों की श्रेणी में है, शायद इसीलिए यहां की राजनीति भी दोयम दर्जे की है। अभी कुछ दिनों पूर्व फ्रांस में हुए हमले के तुरंत बाद वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी ने ये घोषणा की थी वो संकट की इस घड़ी में सरकार व देशवासियों के साथ है। इसके कुछ दिनों बाद ही देश में पठानकोट हमले हुआ। इस घटना पर सभी विपक्षी दलों की तरफ से हुई प्रतिक्रिया से पूरा देश अवगत है।

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